दान की चर्चा होते ही भामाशाह का नाम स्वयं ही मुँह पर आ जाता है। देश रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सब जमा पूँजी अर्पित करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म अलवर (राजस्थान) में 28 जून, 1547 को हुआ था। उनके पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी थीं। श्री भारमल्ल राणा साँगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे। अपने पिता की तरह भामाशाह भी राणा परिवार के लिए समर्पित थे।
एक समय ऐसा आया जब अकबर से लड़ते हुए राणा प्रताप को अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग करना पड़ा। वे अपने परिवार सहित जंगलों में रह रहे थे। महलों में रहने और सोने चाँदी के बरतनों में स्वादिष्ट भोजन करने वाले महाराणा के परिवार को अपार कष्ट उठाने पड़ रहे थे। राणा को बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएँ,जिससे अपने देश को मुगल आक्रमणकारियों से चंगुल से मुक्त करा सकंे।
इस समय राणा के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या धन की थी। उनके साथ जो विश्वस्त सैनिक थे, उन्हें भी काफी समय से वेतन नहीं मिला था। कुछ लोगों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह दी; पर राणा जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी को यह स्वीकार नहीं था। भामाशाह को जब राणा प्रताप के इन कष्टों का पता लगा, तो उनका मन भर आया। उनके पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था। उन्होंने यह सब राणा के चरणों में अर्पित कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने 25 लाख रु. तथा 20,000 अशर्फी राणा को दीं। राणा ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा लिया।
राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की। इस पर भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो गये और नम्रता से कहा कि मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है। यह सब धन मैंने देश से ही कमाया है। यदि यह देश की रक्षा में लग जाये, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा। महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया।
उधर जब अकबर को यह घटना पता लगी, तो वह भड़क गया। वह सोच रहा था कि सेना के अभाव में राणा प्रताप उसके सामने झुक जायेंगे; पर इस धन से राणा को नयी शक्ति मिल गयी। अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकड़ लाने को कहा। अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर हमला करना उसे शोभा नहीं देता। इस पर उसने भामाशाह को कहलवाया कि वह उसके दरबार में मनचाहा पद ले ले और राणा प्रताप को छोड़ दे; पर दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध की तैयारी भी कर ली। यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया।
भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से राणा प्रताप ने नयी सेना बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया। भामाशाह जीवन भर राणा की सेवा में लगे रहे। महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट आया, तो उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने राणा प्रताप के साथ किया है।
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एक डिप्टी कलेक्टर के तौर पर जब जिला शिक्षा अधिकारी का प्रभार मिलने के बाद ज्वाइन किया, तो जानकारी हुई की ये जिला, स्कूली शिक्षा के लिहाज से बहुत पिछड़ा हुआ हैं |.वरिष्ठ अधिकारियों ने भी कहा आप ग्रामीण इलाकों पर विशेष ध्यान दें |
बस तय कर लिया, महीने में आठ दस दिन जरूर ग्रामीण स्कूलों को दूंगा | शीघ्र ही..ग्रामीण इलाकों में दौरों का सिलसिला चल निकला, पहाड़ी व जंगली इलाका भी था कुछ, एक दिन मातहत कर्मचारियों से मालूम हुआ, "बड़ेरी" नामक गांव, जो एक पहाड़ी पर स्थित है, वहां के स्कूल में कोई शिक्षा अधिकारी नहीं जाता है, क्योंकि वहां पहुंचने के लिए वाहन छोड़ कर लगभग पांच-छः किलोमीटर जंगली रास्ते से पैदल ही जाना होता है | तय कर लिया अगले दिन वहां जाया जाए |
वहां कोई मिस्टर वी. के. वर्मा हेड मास्टर हैं. जो बरसों से, पता नहीं क्यूं वहीं जमे हुए हैं .! मैंने निर्देश दिए उन्हें कोई अग्रिम सूचना न दी जाय, सरप्राइज विजिट होगी..! अगले दिन हम सुबह निकले, दोपहर बारह बजे, ड्राइवर ने कहा "साहब यहां से आगे पहाड़ी पर पैदल ही जाना होगा पाच छः किलोमीटर" |
मै और दो अन्य कर्मचारी पैदल ही चल पड़े, लगभग डेढ़ घंटे सकरे .. पथरीले जंगली रास्ते से होकर हम ऊपर गांव तक पहुंचे, सामने स्कूल का पक्का भवन था और लगभग दो सौ कच्चे पक्के मकान थे | स्कूल साफ सुथरा और व्यवस्थित रंगा पुता हुआ था, बस तीन कमरे और प्रशस्त बरामदा, चारों तरफ सुरम्य हरा भरा वन |
अंदर क्लास रूम में पहुंचे तो तीन कक्षाओं में लगभग सवा सौ बच्चे तल्लीनता पूर्वक पढ़ रहे थे, हालांकि शिक्षक कोई भी नहीं था, एक बुजुर्ग सज्जन बरामदे में थे जो वहां नियुक्त पियून थे शायद ,उन्होंने बताया हेड मास्टर साहब आते ही होंगे, हम बरामदे में बैठ गए थे, तभी देखा एक चालीस पैतालीस वर्ष के सज्जन अपने दोनो हाथो में पानी की बाल्टियां लिए ऊपर चले आ रहे थे. पायजामा घुटनों तक चढ़ाया हुआ था, ऊपर खादी का कुर्ता जैसा था..!
उन्होंने आते ही परिचय दिया : "मैं वी के वर्मा यहां हेड मास्टर हूं..। यहां इन दिनों बच्चों के लिए पानी, थोड़ा नीचे जाकर कुंए से लाना होता है ।हमारे चपरासी दादा बुजुर्ग हैं अब उनसे नहीं होता ।इसलिए मै ही लेे आता हूं । वर्जिश भी हो जाती है." वे मुस्कुराकर बोले |
उनका चेहरा पहचाना सा लगा और नाम भी, मैंने उनकी और देखकर पूछा : "तुम विवेक हो ना ! इंदौर से, गुजराती कॉलेज!" मैंने हैट उतार दिया था । उसने कुछ पहचानते हुए , चहकते हुए कहा : "आप अभिनव.. !!" अभिनव श्रीवास्तव..!
मैंने कहा और नहीं तो क्या.. भई..! लगभग बीस बाईस बरस पहले हम इंदौर में साथ ही पढ़े थे |बेहद होशियार और पढ़ाकू था वो बहुत कोशिश करने के बावजूद शायद ही कभी उससे ज्यादा नंबर आए हों, मेरे!
एक प्रतिस्पर्धा रहती थी हमारे बीच..जिसमें हमेशा वही जीता करता था | आज वो हेड मास्टर था और मैं, जिला शिक्षा अधिकारी पहली बार उससे आगे निकलने, जीतने का भाव था | और सच कहूं तो खुशी थी मन में |
मैंने सहज होते हुए पूछा :" यहां कैसे पहुंचे, भई..? और कौन कौन है घर पर..?"
उसने विस्तार से बताना शुरू किया : “ एम. कॉम करते समय ही बाबूजी की मालवा मिल वाली नौकरी जाती रही थी, फिर उन्हें दमे की बीमारी भी तो थी..! घर चलाना मुश्किल हो गया था | किसी तरह पढ़ाई पूरी की, नम्बर अच्छे थे | इसलिए संविदा शिक्षक वर्ग - 3 की नियुक्ति मिल गई थी, जो छोड़ नहीं सकता था | आगे पढ़ने की न गुंजाइश थी न परिस्थितियां, इस गांव में पोस्टिंग मिल गई |
मां बाबूजी को लेकर यहां चला आया, सोचा गांव में कम पैसों में गुजारा हो ही जायेगा..! फिर उसने हंसते हुए कहा : इस दुर्गम गांव में पोस्टिंग और वृद्ध बीमार मां बाप को देख, कोई लड़की वाले लड़की देने तैयार नहीं हुए, इसलिए विवाह नहीं हुआ | और ठीक भी है, कोई पढ़ी लिखी लड़की भला यहां क्या करती..!
अपनी कोई पहुंच या पकड़ थी नही, पैसे भी नहीं थे कि यहां से ट्रांसफर करा पाते, तो बस यहीं जम गए |
यहां आने के कुछ बरस बाद, मां बाबूजी दोनों ही चल बसे, यथा संभव उनकी सेवा करने का प्रयास किया | अब यहां बच्चों में, स्कूल में मन रम गया है|
छुट्टी के दिन बच्चों को लेकर आस पास की पहाड़ियों पर वृक्षारोपण करने चला जाता हूं | रोज शाम को स्कूल के बरामदे में बुजुर्गों को पढ़ा देता हूं, अब शायद इस गांव में कोई निरक्षर नहीं है | नशा मुक्ति का अभियान भी चला रक्खा है, अपने हाथों से खाना बना लेता हूं और किताबें पढ़ता हूं | बच्चों को अच्छी बुनियादी शिक्षा, अच्छे संस्कार मिल जाएं, अनुशासन सीखें बस यही ध्येय है |
मै सी ए नहीं कर सका पर मेरे दो विद्यार्थी सी.ए. हैं, और कुछ अच्छी नौकरी में भी। मेरा यहां कोई ज्यादा खर्च है नहीं, मेरी ज्यादातर तनख़ा इन बच्चों के खेल कूद और स्कूल पर खर्च हो जाती हैं, तुम तो जानते हो कॉलेज के जमाने से क्रिकेट खेलने का जुनून था..! वो बच्चों के साथ खेल कर पूरा हो जाता है, बड़ा सुकून मिलता है"
मैंने टोकते हुए कहा : मां बाबूजी के बाद शादी का विचार नहीं आया..? उसने मुस्कुराते हुए कहा :“दुनियां में सारी अच्छी चीजें मेरे लिये नहीं बनी है", "इसलिए जो सामने है, उसी को अच्छा करने या बनाने की कोशिश कर रहा हूं"| फिर अपने परिचित दिलचस्प अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोला.“
अरे वो फ़ैज़ साहेब की एक नज़्म में है न..! .
"अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो..अब यहां कोई नहीं..कोई नहीं आएगा", उसकी उस बेलौस हंसी ने भीतर तक भिगो दिया था | लौटते हुए मैंने उससे कहा.."विवेक..तुम जब चाहो तुम्हारा ट्रांसफर मुख्यालय या जहां तुम चाहो करा दूंगा", उसने मुस्कुराते हुए कहा : "अब बहुत देर हो चुकी है | जनाब,अब यहीं इन लोगों के बीच खुश हूं", कहकर उसने हाथ जोड़ दिए..
मेरी अपनी उपलब्धियों से उपजा दर्प, उससे आगे निकल जाने का अहसास, भरम चूर चूर हो गया था | वो अपनी जिंदगी की तमाम कमियों.. तकलीफों.. असुविधाओं के बावजूद सहज था, उसकी कर्तव्यनिष्ठा देख कर मै हतप्रभ था, जिंदगी से..किसी शिकवे या शिकायत की कोई झलक उसके व्यवहार में.नहीं थी | सुख-सुविधाओं उपलब्धियों ओहदों के आधार पर हम लोगों का मूल्यांकन करते हैं, लेकिन वो इन सब के बिना मुझे फिर पराजित कर गया था..!
लौटते समय उस कर्म ऋषि को हाथ जोड़कर..भरे मन से इतना ही कह सका : "तुम्हारे इस पुनीत कार्य में कभी मेरी जरूरत पड़े तो जरूर याद करना मित्र"|
आपका प्रशासनिक औहोदा क्या था या क्या है यह कोई महत्व नहीं रखता यदि आप एक अच्छे इंसान नहीं बन पाए..
Prof. C. V. Raman |
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